भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अन्धेरी निशा में नदी के किनारे / सरयू सिंह 'सुन्दर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अन्धेरी निशा में नदी के किनारे
धधक कर किसी की चिता जल रही है ।

धरा रो रही है, बिलखती दिशाएँ,
असह वेदना ले गगन रो रहा है,
किसी की अधूरी कहानी सिसकती,
कि उजड़ा किसी का चमन रो रहा है,

घनेरी निशा में न जलते सितारे,
बिलखकर किसी की चिता जल रही है ।

चिता पर किसी की उजड़ती निशानी,
चिता पर किसी की धधकती जवानी,
किसी की सुलगती छटा जा रही है,
चिता पर किसी की सुलगती रवानी,

क्षणिक मोह-ममता जगत को बिसारे,
लहक कर किसी की चिता जल रही है ।

चिता पर किसी का मधुर प्यार जलता,
किसी का विकल प्राण, श्रृंगार जलता,
सुहागिन की सुषमा जली जा रही है,
अभागिन बनी जो कि संसार जलता,

नदी पार तृण पर अनल के सहारे
सिसक कर किसी की चिता जल रही है ।

अकेला चला था जगत के सफ़र में,
चला जा रहा है, जगत से अकेला,
क्षणिक दो घड़ी के लिए जग तमाशा,
क्षणिक मोह-ममता, जगत का झमेला,

लुटी जा रही हैं किसी की बहारें,
दहक कर किसी की चिता जल रही है ।

1953