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अन्धेरे की व्यथा / देवेन्द्र कुमार
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झर रही हैं पत्तियाँ
झरनों सरीखी
स्वर हवा में तैरता है ।
यहाँ कोई फूल था
शायद यहीं इस डाल पर
तुमको पता है ?
ख़्वाहिशों की इमारत थी
ढह गई है,
ज़िन्दगी अख़बार होकर
रह गई है,
साँस है
या बाजरे का बीज
कोई पेरता है ।
हड्डियों का पुल
शिराओं की नदी है,
इस सदी से भी
अलग कोई सदी है,
आज की कविता
अँधेरे की
व्यथा है ।