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अन्धेरे के बारे में कुछ वाक्य / राजेश जोशी

Kavita Kosh से
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अन्धेरे में सबसे बड़ी दिक़्क़त यह थी कि वह क़िताब पढऩा
नामुमकिन बना देता था।

पता नहीं शरारतन ऐसा करता था या क़िताब से डरता था
उसके मन में शायद यह संशय होगा कि किताब के भीतर
कोई रोशनी कहीं न कहीं छिपी हो सकती है ।
हालाँकि सारी क़िताबों के बारे में ऐसा सोचना
एक क़िस्म का बेहूदा सरलीकरण था ।
ऐसी क़िताबों की संख्या भी दुनिया में कम नहीं,
जो अन्धेरा पैदा करती थीं
और उसे रोशनी कहती थीं ।

रोशनी के पास कई विकल्प थे
ज़रूरत पडऩे पर जिनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता था
ज़रूरत के हिसाब से कभी भी उसको
कम या ज़्यादा किया जा सकता था
ज़रूरत के मुताबिक परदों को खीच कर
या एक छोटा सा बटन दबा कर
उसे अन्धेरे में भी बदला जा सकता था
एक रोशनी कभी-कभी बहुत दूर से चली आती थी हमारे पास
एक रोशनी कहीं भीतर से, कहीं बहुत भीतर से
आती थी और दिमाग को एकाएक रोशन कर जाती थी ।

एक शायर दोस्त रोशनी पर भी शक करता था
कहता था, उसे रेशा-रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है ।

अधिक रोशनी का भी चकाचौंध करता अन्धेरा था ।

अन्धेरे से सिर्फ़ अन्धेरा पैदा होता है यह सोचना ग़लत था
लेकिन अन्धेरे के अनेक चेहरे थे
पॉवर-हाउस की किसी ग्रिड के अचानक बिगड़ जाने पर
कई दिनों तक अन्धकार में डूबा रहा
देश का एक बड़ा हिस्सा ।
लेकिन इससे भी बड़ा अन्धेरा था
जो सत्ता की राजनीतिक ज़िद से पैदा होता था
या किसी विश्व-शक्ति के आगे घुटने टेक देने वाले
ग़ुलाम दिमागों से !

एक बौद्धिक अन्धकार मौक़ा लगते ही सारे देश को
हिंसक उन्माद में झौंक देता था ।

अन्धेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे
और उसे अपनी नियति मान लेते थे
कुछ ज़िद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में
जो कहते थे कि अन्धेरे समय में अन्धेरे के बारे में गाना ही
रोशनी के बारे में गाना है ।

वो अन्धेरे समय में अन्धेरे के गीत गाते थे ।

अन्धेरे के लिए यही सबसे बड़ा ख़तरा था ।