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अन्यों से विशेष / महेश चंद्र द्विवेदी

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मैं अन्यों से विशेष हूं?
मैं जानता हूं कि जिस दिन
मैं इस संसार में जन्मा था,
वह न तो कोई दिवस-विशेष
और न कोई पल-विशेष था;

मेरे जैसे सहस्रों ने उसी दिन
उसी पल जन्म लिया था,
मेरे जैसे उनके लिये भी
ढोलक बजी थी, बताशे बंटे थे;
उनके बाबा-दादी के झुर्रियों भरे
चेहरे पर भी मुस्कान आई थी,
फिर भी न जाने क्यूं लगता है
कि मेरा जन्म अन्यों से विशेष था?

मैं जानता हूं कि उस दिन
सूरज पूरब में ही निकलेगा,
ब्राह्मवेला में मंथर-वायु,
शीतलता के साथ ही आयेगी;
आकाशीय लालिमा प्रतिदिन
की भांति पूरब में छायेगी,
छत की मुंडेर पर
चिरौटा चहकेगा, गौरैया चहचहाएगी;
पृथ्वी किंचित नहीं दहलेगी
जब मेरी विदाई की वेला आयेगी ।

फिर भी न जाने क्यूं लगता है
कि वह पल कोई विशेष होगा?
उस दोपहर भी ग्रीष्म की धूप चमकेगी
अथवा हेमंत की ठंडी बयार बहेगी,
पसीने से होंगे श्लथ लथपथ
अथवा ठंड से सिकुड़ते होंगे सब;
जब मेरे ठंडे शांत बदन को
बर्फ़ की सिल्ली पर लिटाया जायेगा,
और फिर लकड़ी के ढेर में
घृत डालकर धू धू जलाया जायेगा;

पर लगता है कि मैं उस भीड़ में
खड़ा देख रहा होऊंगा यह सब,
मना रहा होऊंगा अपना ही शोक,
क्यूंकि मैं अन्यों से विशेष हूं ।