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अन्हार देशक आन्हर सरकार / भास्करानन्द झा भास्कर

महगाई ओ
घोटालाक
लागल अगिलग्गी
सगरो देशमे,
जरैत लोकक
मार्मिक क्रन्दन
वेदना व्यथित
जीबैत लहासक
हाय! चित्कार!

छी! छी! छी!
धिक्कारैत
हमर आत्मा
अकिंचनक
प्रतिनिधि रुपमे,
मुदा…
बेवश, नि:सहाय,
हम आम जन,
निष्ठुर
सरकारक
मोट कान
अकानि दैत छै
देशसं आबैत
भर्त्सना ओ धिक्कार!

प्रतिरोधक स्वर
बेसुर
निष्प्रभ भ’
जायत छैक
संसदक स्वपरक
कोलाहलक मध्य,
पसरैत अहर्निश
दुर्दीन-क्षुब्धता
हीनता ओ दीनता
गरीबक घर
रहिये जायत छैक
खोभार! गुप्प अन्हार!