अपनापन / पुष्पिता
शब्द तुम्हारे
हल्दी की गाँठ
रक्त जल में
उतरता है रंग।
शब्द तुम्हारे
आषाढ़ी मेघ
आस्था की माटी में
रमती है सोंधी नमी।
शब्द तुम्हारे
सहस्त्र पँखुरी-पुष्प
आँखों के आकाश में
उगता है युग वसंत।
शब्दों की आँखों से
पीती हूँ उजाला
आला भर
अँधेरे से सूने
डरे घबराये वक्ष के लिए।
तुममें घुले बगैर
जानना कठिन है प्यार का अपनापन
आँखों में समा जाता है जैसे सब कुछ
वैसे ही तुममें
मेरा हर कुछ।
ऊँगलियों पर दिन गिनने में
आँखें भूल जाती हैं नाखून काटना
बढ़े हुए नाखून
काटते हैं समय-सुरंग
शकटार की तरह।
मन की अंजलि में
स्मृतियों की परछाईं हैं
जो घुलती हैं
आत्मा की आँखों में
और आँसू बनकर
ठहर जाती हैं
कभी आँखों के बाहर
कभी आँखों के भीतर।
मन के अधरों में
धरा है प्रणयामृत
शब्द बनकर
कभी ओठों से बाहर
कभी ओठों के भीतर।