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अपनासँ घेराएल एकाकी ! / धीरेन्द्र
Kavita Kosh से
अपनासँ घेराएल एकाकी !
अएला केओ ओ ई बनिकें
अएला केओ ई ओ बनिकें,
जीवन-क्रममे की कहु संगी,
अएला बहुतो एहिना छलिकें
जीवन संगिनि हम छी अहाँक,
हम बेटा तँ हम छी बेटी,
आएल पुनि फेरो एहनो क्षण,
सबहक नकाब उनटल ओहिना।
ओहो ! ई तँ थिक उएह मुखड़ा,
हमर मानस जनु सिहरि गेल,
केओ अप्पन अछि कहाँ हमर,
सभकेर सभ कि थिक ई अरे ! आन।
झन-झनन-झनन, खन-खनन-खनन
सुनबाकेर खाली प्रत्याशी।
सभ भ्रान्ति कि अबह तों झपदय,
ऋषि वाल्मीकिकेर हे करूणे !
चिर दिनकेर हम तँ छी विरही,
तों ही मदिरा, तों ही शाकी।
अस बुझि लेल, सभ झेलि लेल,
किछुओ ने आब रहले बाँकी ।
अपनासँ घेराएल एकाकी !