क्यों लोग
एक दूसरे की तकलीफ़
नहीं समझते ?
क्यों दूसरे के दुख मंे
आनंद की खोज करते हैं ?
क्यों ‘ऑबर्शन’ की बात
करते हैं ?
क्यों अपने को महाज्ञानी
और दूसरे को नितांत मूर्ख
समझते हैं ?
क्यों बेटे, बूढ़े मां-बाप
का दर्द नहीं समझते ?
क्यों बहुएं
अपनी अंतरात्मा में
नहीं झांकतीं
क्या उनकी पहल ठीक थी ?
या नहीं ?
क्यों संयुक्त परिवार टूट रहे हैं ?
रिश्तों में खटास
पहले से अधिक बढ़ चुकी है
इस आपाधापी की जिंदगी में
कुछ क्षण नहीं हैं
अपने पास
अपनों को समझने के लिए
जिंदगी हवन कर चुके
वयोवृद्ध दंपति
लाठी टेकते धीरे-धीरे
चल रहे हैं
हाथ में शाम को पकाने -
के लिए सब्ज़ी है
थोड़ा पालक, नींबू
कुछ आलू, एक पपीता
चार-पांच दशहरी आम
क्यों बहू खाना नहीं बनाती ?
पिता की तकलीफ़ बच्चे
क्यों नहीं जानते ?
या सब जानते हैं !
या न जानने का ढोंग -
करते हैं
ऐसे चित्र न जाने
कितनों के हैं
कितनी लाठियां लिए
बुज़ुर्ग सब्ज़ियां ला रहे हैं
बेबस मां-बाप उस दिन को
बड़ी मासूमियत से
याद करते हैं
जब बेटा हुआ था
बांटी थीं
मुहल्ले भर में मिठाई
आज वही पिता
बाज़ार में
चुपके से सौ ग्राम
जलेबी खा आते हैं
यानी
जीना भी मयस्सर नहीं
अपनी धुन में चला जा रहा है
- तेज़ ऱतार से आती कार
चालक की भद्दी गाली
हवा में उछली
- बूढ़ा पिता कुछ नहीं कहता
डग भरता हुआ
लौट आता है
जहां से चला था ।