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अपना-अपना सुख / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
ये बहुत पा चुके हैं
फिर भी अतृप्त हैं
उन्हें अभी बहुत कुछ चाहिए
जीवन की एक सांध्य बेला में
वे दौड़ रहे हैं गिरते-पड़ते
हाँफते-डाँफते
यहाँ से वहाँ तक, वहाँ से वहाँ तक
यह उनका अपना सुख है।
वह सोचता है
उसे जितना मिला है, बहुत है
जो नहीं मिला
उसका भला अंत कहाँ है?
जीवन की सांध्य बेला में
वह चल रहा है समय के साथ
चुपचाप धीरे-धीरे-
यह सोचता हुआ कि
वह औरों को क्या दे सकता है
यह उसका अपना सुख है।
-10.8.2014