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अपना अकेला घर के / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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अपना अकेला घर के
भीत भहरा के,
विशाल विश्व के यात्रा पर
प्राण के रथ में बइठ के,
कब निकलेब हम?
प्रबल प्रेम में पड़ के
सभका साथे सभका खातिर
काम-कज मेभें धवल फिरेब
त कहीं हाट-बजर क रहे-पेभेंड़े
तहरो से हो जाई भेंट!
आशा-आकभेंक्ष से भरल
सुख-दुख मय सागर में
पौंरत-पौभेंरत अपन छती पर
लहरन के चोट सह लेब।
बाकिर जब आघात के वेग बढ़ी
तब तहरे गोद में विश्राम करेब।
ओहघड़ी संसार के अपार कोलाहल में
खाली तहरे बानी हमरा सुनाई।
प्राण का रथ पर चढ़ के
बाहर कब निकल सकेब?