अपना अहंकार तुम गाते रहे रात भर
अब प्रभात में मुझको भी कुछ कह लेने दो
मैंने ही दृढ़ अन्धकार की परतें तोड़ी
और तुम्हारी अजगर जैसी बाँहें मोड़ीं
मेरी धरती पर किरणों के तृण लहराए
इसीलिए तो मैंने कठिन ज़मीनें गोड़ीं
तुम काला विध्वंस रचाते रहे रात भर
अब प्रभात के ज्योतित क्षण को रह लेने दो
जितना हो सकता था तुमने विष फैलाया
औरों की तड़पन देखी, त्योहार मनाया
लेकिन सब का समय एक-सा कब होता है
डूबा निशि का राग, प्रभाती का स्वर आया
तुम अपनी फुफकार छोड़ते रहे रात भर
अब प्रभात के मलय-पवन को बह लेने दो
14.08.1962