भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपना एक घर बनाती हूँ / उषा उपाध्याय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शब्द की ईंट रखकर अपना एक घर बनाती हूँ,
ग़ज़ल फूलमाल से आख़िर उसे मैं अब सजाती हूँ ।

बजी गिरनार में करताल, द्वारिका बसी मीरा,
कलम की साधना से मैं, रसम उनकी निभाती हूँ ।

जीवन की शून्यता भरने, नहीं जाना सुरालय में,
मिला है यह लबालब जाम आँसू का, उठाती हूँ ।

मिली बेरंग दीवारें, न थी सुर्ख़ी तनिक भी तो,
तुम्हारे संग की मेहंदी मिली, हर रंग सजाती हूँ ।

छाए हुए हो तुम गगन में उर्ध्वमूल वटवृक्ष,
धरा पर हूँ, मटुकी में सकल तुम में समाती हूँ ।

मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं कवयित्री द्वारा