अपना जलवा वो हरिक रोज़ दिखाता है मुझे
मिल न पाऊँ तो इशारों से बुलाता है मुझे
सांवरा बैठ के मंदिर में निहारे मुझ को
उस का अंदाज़ अनोखा यही भाता है मुझे
मैं भटक जाऊँ कभी राह से सच ईमां की
थाम कर हाथ सही राह पे लाता है मुझे
छोड़ देता है ज़माना मुझे अक्सर तन्हा
सांवरा ख़्वाब में ले के चला आता है मुझे
खेल ही खेल में जब रूठ कभी जाऊँ मैं
धुन वो वंशी की बजा कर के मनाता है मुझे
हर तरफ छाये अँधेरों को मिटाने के लिये
वो चिराग़ों की तरह रोज़ जलाता है मुझे
लोग कहते हैं उसे संग संगदिल फिर भी
वो दया कर के मुसीबत से बचाता है मुझे