भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपना डेरा फ़क़ीर छोड़ गये / राजेंद्र नाथ 'रहबर'
Kavita Kosh से
अपना डेरा फ़क़ीर छोड़ गये
ख़ुशबुओं की लकीर छोड़ गये
आइना देखते तो किस मुंह से
आईना बे-ज़मीर छोड़ गये
अह्ले-दुन्या की रहबरी के लिये
अपने दोहे कबीर छोड़ गये
रूह में जा के हो गये पैवस्त
तंज़४ के तुम जो तीर छोड़ गये
ईद फ़ाक़ा-कशों की हो जाये
जूठे टुकड़े अमीर छोड़ गये
उस के हम पासदार हैं 'रहबर`
वो विरासत जो 'मीर` छोड़ गये