भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपना देश / सूर्यकुमार पांडेय
Kavita Kosh से
गर्मी का मौसम जब आए,
सूरज रंग-गुलाल लुटाए।
वर्षा में बादल पिचकारी-
बनकर हमें भिगोता जाए।
जाड़ों में कुहरे के उजले-
कपड़े लाता अपना देश।
हर मौसम में होली का
त्योहार मनाता अपना देश।
गंगा की लहरों-सा चंचल,
दृढ़ विन्ध्याचल-सा ठहरा।
तन हिमगिरि से भी ऊँचा है,
मन सागर से भी गहरा।
केसर की क्यारी-सा हर पल-
गन्ध लुटाता अपना देश।
कहीं डांडिया, गरबा, गिद्दा,
कत्थक और भरत-नाट्यम।
बिरहा कहीं, कहीं पर चैता,
कहीं मृदंग, ढोल ढम-ढम।
फागुन आते ही मस्ती में-
तान लगाता अपना देश।
खेत और खलिहानों में,
हर पल इठलाता अपना देश।
कितना प्यारा देश हमारा,
हँसता-गाता अपना देश।