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अपना मैं कह सकूँ जिसे दिलबर नहीं रहा / सुमन ढींगरा दुग्गल
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अपना मैं कह सकूँ जिसे दिलबर नहीं रहा
तन्हा सफर पे चल पड़ी रहबर नहीं रहा
तक्मील कर दे दर्द की रूदाद लफ्ज़ों से
ऐसा जहां में कोई सुखनवर नहीं रहा
बेहतर है उस को आज बुलंदी नसीब है
लेकिन अब उसका पाँव ज़मीं पर नहीं रहा
इस ज़िंदगी में ढूँढते हैं रोज़ ज़िंदगी
खुशियों का वो खज़ाना वो महवर नहीं रहा
जो ज़हन ओ दिल को मेरे मुअत्तर किया करे
गुलशन में तेरे अब वो गुलेतर नहीं रहा
बचपन की सेज पर थे खुशी के तमाम फूल
लेकिन जवाँ हुये तो वो बिस्तर नहीं रहा
ढूँढें कहाँ से अपनों की वो खोई कुर्बतें
खाली मकान रह गया अब घर नहीं रहा