अपना सामना / अम्बर रंजना पाण्डेय
तुम बिम्ब से मुझे चमत्कृत कर सकते हो,
तुम बीस-पच्चीस बिम्बों के एक कविता में अपव्यय से
मुझे अधिक चमत्कृत कर सकते हो
किन्तु पंसुलियों के बीच पड़ी
यह गाँठ नहीं खोल पाती तुम्हारी कविता
किसी असूर्यम्पश्या स्त्री-सी मैं
छू नहीं पाता जिसे तुम्हारी कविता का तत्व
किन्तु इस परकीया को चाहिए
तुम्हारे छन्द का स्पर्श
हल्दी की पानी में पड़ी गाँठ
जैसा गल जाए मन कि छेदकर
पोह लो देवी के लिए हार
किन्तु तुम तो नास्तिक हो तुम तो मार्क्सवादी हो
देवी तो तुम्हारे लिए महज़
एक सांस्कृतिक बिम्ब हैं ।
कभी किसी दिन, जब धूप निकली हो क्वाँर की
वर्षा के बाद फिर चढ़ी हो
धूल हवा के रथ पर
तब आना और करना
प्रतिबिम्ब की बात
बहुत हो चुकी तुम्हारी सच्ची कविता
बात करना झूठे प्रेम की
बात करना ऐसे जैसे अठ्ठारह सौ सत्तावन के बाद
लखनऊ के शायर इश्क़-इश्क़ की
कनबतियाँ फूँकते थे गालों पर
फूँकते थे सिगरेट की तरह
कभी बात भी करना या बात ही करना
लीला-लीला में मुस्कुराना
श्वेत-श्याम सिनेमा के नायकों की तरह
रूठ जाना बेवज़ह, उस दिन
तुम्हें क़सम हैं कोई और बात मत करना
कविता मत सुनाना । केवल बाँह
पकड़ लेना कसके, ज़ोर दिखाना
मत करना बात लातिन-अमरीकी फ़िक्शन की
रूसी फ़लसफ़े इस्पहानी फ़ोटोग्राफ़ी की
जानकारियों की जो तुमने उस कमबख़्त इण्टरनेट से
बीन-बीन कर जमा कर ली हैं
किसी दिन कवि नहीं कलाकार नहीं एक्टिविस्ट नहीं
शमशेर बहादुर सिंह को जो मुहाल था
वह इनसान बनकर आना
जिसे लगता हो चान्द हसीन न कि टेढ़े मुँह वाला ।
तुम्हारी कनपटियों पर आया स्वेद है मेरी कविता
तुम्हारी दुर्गन्ध, तुम जब गर्दन झुकाए देखते हो कुछ
तो तुम्हारे उघारी पीठ पर जो निकल आते हैं पँख
वह बहुत हैं मेरे संसार को लेकर उड़ जाने के लिए ।
असल में अम्बर रंजना पाण्डे
तुम जो कवि बने इतराए फिरते हो
तुम्हारी कविता मेरी सौत हैं
तुम्हारी कविता बेहद बेहद बुरी है
इससे बेहतर तो तुम जवाकुसुम लगाकर
बाँधते हो मेरी दो चोटियाँ ।