अपना सूरज / मानबहादुर सिंह
क्या नाम है उस सूरज का
जो पहाड़ के
उत्तुंग शिखर से नहीं झाँकता
समुद्र के
नील अथाह के भव्य विराट में
नहीं डूबता
जो बूढ़ी माँ की झुर्रियों में
चिन्ताकुल उगता है
और उसके बेटे–बेटियों के कृश अंगों पर
धूप का उबटन लगाता है
लोरी गाती उसकी आँखों के
उदास सपनों में
आहिस्ते–आहिस्ते सो जाता है -–
क्या नाम है अपने उस सूरज का
जो सुबह सुबह
पत्नी की ममतालु खटर-पटर के साथ
चाय की केतली में खदबदाता है
उसके भीगे आँचल के पसीने को
उसके तपते माथे पर सुखाता है
कहाँ होगा वह सूरज
जो दो छातियों के बीच
ईद का चाँद होेता है
होली के राग–रंग में
अबीर के साथ
हँसता है खिलखिलाता है ।
बस उसी सूरज को तलाशो
कहीं दुनिया के संसद भवनों ने तो
नहीं छुपाया है
मिल–कारखानों के
धुएँ ने तो नहीं ढँक लिया
मन्दिरों मस्ज़िदों के कंगूरों ने
उसे फाँसी पर तो नहीं लटका दिया
हाय ! अपने उसी सूरज के लिए
रात–रात भर सपने देखता हूँ ।