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अपना है मगर अपनो सी इज़्ज़त नहीं देता / डी .एम. मिश्र

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अपना है मगर अपनो सी इज़्ज़त नहीं देता
उड़ता हुआ बादल कभी राहत नहीं देता

फ़रमाइशें हैं शान में उनके भी हो ग़ज़ल
मेरा ज़मीर इसकी इजाज़त नहीं देता

मेरी भी ख़्वाहिशें हैं कि छू लूँ मैं आसमान
टूटा हुआ पर उड़ने की त़ाक़त नहीं देता

बेवजह वो रखता है सदा ख़़ुद को नुमायाँ
मक्कार किसी और को अज़मत नहीं देता

करिये मदद ग़रीब की दिल खोलकर जनाब
हर शख़्स को वो एक सी क़िस्मत नहीं देता

देखे हैं जो सपने उन्हें कल पर न टालिये
ये वक़्त है पल भर की भी मोहलत नहीं देता