अपनी अपनी शब-ए-तनहाई की तंज़ीम करें
चाँदनी बाँट लें महताब को तक़सीम करें
मैं ये कहता हूँ के मुझ सा नहीं तनहा कोई
आप चाहें तो मेरी बात में तरमीम करें
इब्न-ए-आदम मुझे रूसवा सर-ए-बाज़ार करे
और सर-ए-अर्श फ़रिश्ते मेरी ताज़ीम करें
बे-ग़रज़ इश्क़ है ये अहल-ए-जहाँ कहते हैं
कुछ ग़रज़-मंद भी होता है ये तस्लीम करें
इश्क़ अकेला है तो क्या हुस्न भी तनहा होगा
हिज्र वो दर्द नहीं है जिसे तक़सीम करें