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अपनी आग के उजाले में / शकुन्त माथुर
Kavita Kosh से
अपनी ज्वाला में
अपनी जलती हुई आग के उजाले में
प्लैनेट ने अपने में देखा
एक अपूर्व कोहनूर
एक अपूर्व नीलमणि
एक अपूर्व खेलती हुई सूर्य-किरण
एक अपूर्व चाँदनी-पट्टिका
काले अन्तराल में से छनती हुई
बिखरती फैलती ये आग
सेंक देगी दर्द को
पूर देगी घाव को
उन्मेष पर पहुँचा कर
गौरवान्वित कर देगी
और अन्ततः ये आग
भस्म कर देगी प्लैनेट को एक दिन
अपनी आग के उजाले में
अपने दर्द के आकाश में
अपने घाव के लोहित रंग में ही
देखा है
अपना नाश और
बनना!