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अपनी आदत से बाज आये हैं / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
अपनी आदत से बाज आये हैं।
घात पर घात जो लगाये हैं।
दुःख तो आता है और जाता है,
सुख तो लगता है दुःख के साये हैं।
पढ़ने-लिखने में जो लगा चश्मा,
लगता दिन भर उसे लगाये हैं।
जब से गंगा नहा के आया हूँ,
रोज लगता है हम नहाये हैं।
अस्थि माता की थी पीपल नीचे,
मुझको लगता वहीं भुलाये हैं।
घर की सांकल बजा के आती हवा,
ऐसा लगता है मेहमां आये हैं।
कुछ तो ऐसा है या नहीं कुछ भी,
कुछ में सब कुछ लगा समाये हैं।
सुन लो ‘प्रभात’ की कविता को
रुचिकर किस क़दर बनाये हैं।