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अपनी इच्छाओं का ही विस्तार है / जगदीश चंद्र ठाकुर
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अपनी इच्छाओं का ही विस्तार है
जिंदगी जैसी भी है स्वीकार है |
दीखता है जो हमारे सामने
वह तो अपना ही रचा संसार है |
एक पत्ता सूख डाली से गिरा
एक आने के लिए तैयार है |
है दिया आनंद फूलों ने जहाँ
पत्थरों ने भी किया उपकार है |
चाहकर भी कुछ न दे पाया तुझे
मुझ पे भी मेरा कहाँ अधिकार है |
जिस चिकित्सक ने मुझे चंगा किया
वह भला क्यों आजकल बीमार है |
लोग जो हैं स्वार्थ में अंधे हुए
क्या नहीं उनका कोई उपचार है |