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अपनी कविता से / विमल राजस्थानी

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दिशि-दिशि फैल रहा है सखि !
जो मधुर, मदिर, कोकिल-कुल-कूजन
और नहीं कुछ यह तो गुंजित-
मुखरित जय-जयकार तुम्हारा

दूर क्षितिज पर झूल रही जो
श्याम मेघ-माला अम्बर में
उमगी पड़ती है उमंग जो
ऋतु-पावस के पुण्य-प्रहर में

चमक-दमक उठती है चितवन
मेघ-मदिर झुक-झुक आते हैं
हिल-डुल उठता नील-गगन-वन
‘छवि के फूल’ बिखर जाते हैं

कोई चुपके-चुपके आकर
फूलों में परिमल भर जाता
कोई हल्के विजन डुलाकर
दिशि-दिशि में मधु-गंध उड़ाता

कोई चुपके आ चुन लेता
शशि-शैया के फूल मनोहर
कोई नींद चुरा, नयनों में-
प्रतिबिंबित हो उठता सुन्दर

बजी साँझ की प्रथम चरण-ध्वनि
चमक उठा कोई आँखों में
भर देता चुपके थकान, उड़ते
विहंगमों की पाँखों में

यह जो झिलमिल-झिलमिल स्वप्निल
ऊपर मायापुरी बसी है
और नहीं कुछ प्रिय ! यह तो
केवल चित्रित श्रृंगार तुम्हारा
ये जो गुँज रहीं मधुरिम रागिनियाँ
युग-युग से त्रिभुवन में
डुँग-डुँग बज उठता मायाविनि !
मन-वीणा का तार तुम्हारा
वन-प्रान्तर के छवि कुंजों में
मधु-ऋतु की पायल का बजना
और नहीं कुछ चिर-सुन्दरि ! यह
मधु मंगल त्यौहार तुम्हारा

धधक रही धरती की छाती-
में दुबकी नन्हीं दुबों पर
संवेदन-शीला निशि-पलकों-
से जातै आँसू-सीकर झर

चुपके उन्हें चुरा ले जाती
क्यों कोई अल्हड़, अज्ञाता
किसके पूजन-अर्चन के हित
मेरा कवि यह समझ न पाता

और दूसरी ओर गिरि-शिखर-
से फूटी पतली जल धारा
विरह-ताप से तपी धरणि का
डुबा रही क्यों कूल-किनारा !

दूर रामगिरि वासी प्रियतम
का छवि-चित्र नयन में धारे
शुभ्र ज्योत्सना में वियोगिनी
यक्ष-प्रिया मुख-चंद्र निहारे

तभी किसी अज्ञात दिशा से
कोई मेघ-खंड शशि मुख पर
छा जाता है और विरहिणी
रह जाती है ठंडी साँसें भर
हँसी-रूदन से आँख-मिचौनी
खेल रही जो तुम युग-युग से
और नहीं कुछ, यह तो संगिनि !
अल्हड़ प्यार-दुलार तुम्हारा
पुरूष-प्रकृति के अभ्यंतर की
प्रति-धड़कन के साथ-साथ ही
थिरक-झमक उठता मनमोहिनि !
छवियों का संसार तुम्हारा