भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी कार / प्रभुदयाल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चलो चलाएँ अपनी कार।
इसमें घूमेंगे संसार।

अपनी कार अनोखी है।
यह रुपए दो सौ की है।
इसमें बैठें चार सवार।

चलती तो चलती जाती।
ब्रेक लगे तो रुक जाती।
पर्वत नदिया करती पार।

दादा दादी आ जाएँ।
अम्मा बापू भी आएँ।
उन्हें घुमा लाऊँ बाज़ार।