भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी ख़ुद्दारी जो दर-दर बेचता रह जाएगा / प्रेम भारद्वाज

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी खुद्दारी जो दर दर बेचता रह जाएगा
उम्र भर यूँ ही वह टेकता रह जाएगा

जेब वाले माल मेले से उड-आ ले जायेंगे
कमज़ोर ख़ाली जेब आँखें सेकता रह जाएगा

भक्तजन तो सीस लेकर राह पकड़ेंगे कोई
लेके अपना सा मुँह खाली देवता रह जाएगा

ज्ञान पूरा भी नहीं है साथ पूरा भी नहीं
व्यूह अभिमन्यु अकेला भेदता रह जाएगा

कब तलक लुटती रहेगी बेटियों की असमतें
कब तलक इक बाप यह सब देखता रह जाएगा

क्या मिलेगा प्रेम पाती तब नए डेरे अगर
उसमें वो पिछली ही बस्ती का पता रह जाएगा