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अपनी खोई हुई अस्मिता के लिए / रणजीत

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'गुड्डन ! गुड्डन !!'
आज सुबह-सुबह जब मैं नहा रहा था
एक रिक्शे वाले ने आवाज़ दी और घंटी बजाई
मुझे लगा कि शायद तुम्हारे स्कूल का रिक्शा
डेढ़ महीने की तुम्हारी अनुपस्थिति के अभ्यास को भूलकर
आज तुम्हें सहसा पुकार उठा है
अभी उसे अपनी गलती महसूस होगी
और वह चला जाएगा

पर नहीं, फिर दरवाज़ा खटखटाने की आवाज़ आई
और फिर 'गुड्डन ! गुड्डन !!', एक लड़की का स्वर गूँजा ।
नहीं
मेरे भरते हुए घाव की सूखती हुई पर्त को उखाड़े बगैर
नहीं जाएगी यह आवाज़ !
मुझे उठना ही होगा ।

एक लड़की थी जो किसी निबंध की रूपरेखा बनवाने आई थी
पर नाम लेकर तुम्हारा
पुकार रही थी मुझे ।
पिछले तेरह महीनों से तुम मेरी पहचान बन गयी थी गुड्डन!
मेरी अस्मिता !!

खाना बनाने वाली सुशीला बाई
अपने आने की सूचना देती है अब भी
'गुड्डन बाबू!' की हाँक लगा कर ।

तुम्हारे बिना लोग मुझे देखते हैं
और पूछते हैं : गुड्डन कहाँ है ?
गुड्डन! गुड्डन!! गुड्डन!!!
चारों ओर से पूछने वाली ये आवाज़े
मेरे कानों के पर्दों को खरोंचती हैं
मैं उन्हें कैसे बताऊँ
कि वह कृतघ्न कोख
जिसमें जीवन के आठ साल बाद बोया था तुम्हारा
उसके लिए फिर भी अवाँछित बीज
और जिसने यह मालूम पड़ने पर
कि निरोध नहीं किया गया है इस बार
धोते हुए अपना द्वार
प्लास्टिक का वह नीला मग मार दिया था मेरे पैरों पर
इस षड़यंत्र के विरोध में
वही कोख ले भागी है तुम्हें चोरों की तरह चुरा कर
तुम पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए !

मैं कितना अकेला हो गया हूँ तुम्हारे बिना
मेरी नन्हीं-सी जान,
मेरी बिटिया !
तुम्हारी नन्हीं-नन्हीं बाँहें
मेरे गले के आसपास लिपट जाती हैं दिवास्वप्नों में
और 'हमारे सबसे प्यारे पापा' का स्वर गूँज उठता है कानों में
आँखों के सामने से हटता ही नहीं
तुम्हारा नीले ट्यूनिक वाला स्कूल से लौटकर
दबे पाँव सीढ़ियों पर चढ़ने वाला बिम्ब!

और वह औरत भुनाना चाहती है
तुम्हारे प्रति मेरे प्यार को
एक ब्लैंक-चैक की तरह
वह चाहती है कि अगर मैं तुम्हें अपने पास रखना चाहता हूँ
तो उसे भी रखूँ

-उसे
जिसके एक-एक हाव-भाव से घृणा करता है
मेरे रक्त का एक एक कण ।

बहुत बड़ा नरक है बेटी अपने प्रियजनों का वियोग
मैं उसे भुगत रहा हूँ होठ चबाते हुए
पर उससे भी बड़ा नरक है अप्रिय का संयोग
जिसे आप नफ़रत करते हों
उसे अपनी शैया पर सुलाने की विवशता से बड़ा
क्या कोई नरक है इस संसार में
मैं नहीं जानता ।

मैं तुम्हें भूलना चाहता हूँ, बेटी
पर मेरे मकान के एक-एक कोने में बिखरे हुए हैं तुम्हारे स्मृति-चिन्ह
तुम्हारी क़िताबें, तुम्हारे कपड़े, तुम्हारे खिलौने !
चूड़ियों के टुकड़ों और राखियों के अवशेषों का वह ढेर
जो तुम गैलरी में बिखरा छोड़ गई थी
मैने काग़ज़ की एक थैली में बन्द करके रख दिया है
तुम्हारी आँटी ने तुम्हारी क़िताबें और कपड़े समेट कर
रख दिए हैं तुम्हारी अटैची में
कुछ तो कम हुआ है मेरी आत्मा के इर्द-गिर्द
तुम्हारे स्मृति-चिन्हों का घेराव

पर बैठक की दीवार पर बनाया हुआ
तुम्हारा विभिन्न रंगों के चौखानों का वह भित्ति-चित्र
जो सदाशय अंकल से चित्र बनाकर लगाने की योजना सुनते ही
तुमने बना दिया था
उसको क्या मैं मिटा सकता हूँ
है मुझमें इतनी हिम्मत ?

और बेडरूम में खाट के एकदम नजदीक चिपकी हुई
पत्रिकाओं से तुम्हारे काटे हुए चित्रों की कतरनें -
'चीकू' का इन्तज़ार किस बेक़रारी से करती थी तुम
हर पखवारे के 'चम्पक' में
तुम्हारा चिपकाया हुआ नन्हें शैतान खरगोश चीकू का चित्र
मुझे देखता है और रुला देता है ।

तुम्हें भूलने के लिए यह मकान ही छोड़ना होगा, बेटी!
यह मकान जिसके दरवाज़ों की कुंडियाँ
और बिजली के सारे स्विच
मैंने लगवाए थे नीचे-नीचे
ताकि तुम्हें खोलने-बन्द करने में कोई कठिनाई न हो
पर नहीं, यह मकान छोड़ने से भी काम नहीं चलेगा
कॉलेज में लड़के-लड़कियाँ पूछती हैं -
'गुड्डन कब आएगी सर!'

और खासतौर से वह हादिया
जिससे तुम्हारी दोस्ती धारकुंडी यात्रा के दौरान हुई थी
और जिसने तुम्हारे रंगीन फोटुओं में से एक चुरा लिया था
उन्हें देखते-देखते ।

गुप्ता जी की दूकान पर दोस्त पूछते हैं
गुड्डन को कहाँ छोड़ आए इस बार ?
इसी सवाल के डर से
मैंने बोड़ेराम से दूध लेना ही छोड़ दिया है
केन नदी की ओर जाऊँ तो वह पूछेगी :
कहाँ है तुम्हारी बेटी? अकेले कैसे आ गये आज ?
और टुनटुनियाँ पत्थर तक तो
चढ़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता मैं, तुम्हारे बिना

नहीं,
यह मकान, यह कॉलेज, यह केन नदी, यह बाँदा शहर ही छोड़ना पड़ेगा मुझे
तुम्हें भूलने के लिए
पर फिर भी क्या तुम्हें भूल पाऊँगा ?