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अपनी गति का सोच / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
अपनी गति का सोच मुझे क्यों हो?
मैं अपनी क्या सोचूँ, जब तुम हो!
निकली हूँ, पथ पर ही हूँ, फिर भी
छूट रहीं आवजें निकल गई!
बाना तो अपने कुल का ही है,
गति-विधि भी अविनीत नहीं न नई;
तब जो उठें उँगलियों उठा करें;
मैं क्यों व्यर्थ सँकोचूँ, जब तुम हो!
यों जो हूँ बेपर्द, यही शायद,
लगता है, पंचों को लगता है;
बँधी टेक की टक ठक रह जाती;
कंडे-सा अभिमान सुलगता है;
फोड़ा करे माथ दुनिया पर मैं
क्यों न सुहागों रोचूँ जब तुम हो!
पैदल पथ पर और अकेली भी,
मैं हूँ अभय कि तुम कब साथ नहीं;
कवच तुम्हारी सुध; फिर इस तन को
कैसे लगे कलुष का हाथ कहीं!
घूँघट-ओट सुधा-घट से मैं क्यों
लोचन-लवण बिमोचूँ, जब तुम हो!