भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी ज़मीन की तलाश(कविता) / मुनीश्वरलाल चिन्तामणि
Kavita Kosh से
बन्धुवर !
इस प्यार भरे रंगों वाले
इन्द्रधनुष की छाया से दूर
न जाने किस भीड़ में खो गए हो तुम ।
याद है,
यहीं इस सतरंगी इन्द्रधनुष की छाया में
कभी एक साथ जीते थे हम
तब हमारे लिए जीवन की सार्थकता
इसी "साथ जीने" में थी
सुख-दुख के साथी बनने में थी
यह क्यों भूल जाते हो तुम ?
कल यह इन्द्रधनुष जैसा मेरा था
वैसा ही वह तुम्हारा भी था
आज भी जैसा वह मेरा है
वैसा ही वह तुम्हारा भी है
बन्धुवर !
क्या इन्द्रधनुष की उस शीतल छाया की
अब तुम्हें याद आती नहीं ?
क्या तुम्हें अब अपनी ज़मीन की तलाश नहीं ?