अपनी ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो
रुख़ से ज़ुल्फ़ें जब महे-कामिल में सरकाते हैं वो
तीरगी सदियों की पल में दूर कर जाते हैं वो
इक झलक के वास्ते बेचैन रहता हूँ सदा
देखकर हालत मिरी चुपके से मुसकाते हैं वो
मुस्कुरा कर वह बढ़ा देते हैं बेचैनी मेरी
क्यों दिले बेताब को हर रोज़ तड़पाते हैं वो
एक नागिन की तरह लहराता है उनका बदन
आ के बाहों में मेरी कुछ ऐसे बल खाते हैं वो
बेख़ुदी में उनकी जानिब जब कभी खिंचता हूँ मैं
बे-रुख़ी के जाम को आँखों से छलकाते हैं वो
वह तरन्नुम है कि सुनकर झूम उठती है फ़ज़ां
जब भी महफ़िल में मिरे नग़मात को गाते हैं वो
ख़्वाहिशे-दिल पूरी कर पाया न जीते जी 'रक़ीब'
ख़्वाब में लेकिन तमन्ना पूरी कर जाते हैं वो