भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपनी डाल / हरीसिंह पाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये जो फूल झड़ रहे हैं
अपनी डाल से
झडऩा ही इनकी नियति है।
अपनी डाल से बिछुडऩा ही
प्रकृति है इनकी।
आखिर सभी की होती है
अपनी कालावधि
उसमें हर कोई अपनी
सुगंध, प्रकाश और यश
बिखेरता है, दिखलाता है।
डाल से बिछुडऩे पर हर फूल
भौतिक रूप में मर जाता है,
मगर उसकी फैलायी सुगंध
लोगों के मन-मस्तिष्क में समा जाती है।
और वायुमंडल में तिरती है।
नव सृजन के लिए, नवनिर्माण के लिए
उन्हें अपना अस्तित्व
नए में विलीन करना ही होगा,
फूलों को डाल से झडऩा ही होगा।
ये जमीन पर बिखरे फूल
हम सभी की तो कहानी कह रहे हैं
बता रहे हैं, एक दिन
तुम भी झड़ जाओगे
अपनी जीवन डाल से हमारी तरह,
मानव सृष्टि के नवनिर्माण
और विकास के लिए।