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अपनी तो नहीं यारो उस बुत से शनासाई / कांतिमोहन 'सोज़'
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अपनी तो नहीं यारो उस बुत से शनासाई<ref>परिचय</ref>।
होती है ज़माने में क्यूँ सोज़ की रुसवाई।।
क्यूँ दर्ज करें दिल पर बेकार-सी तफ़सीलें<ref>ब्योरे</ref>
किस-किसके गुनाहों की किस-किसने सज़ा पाई।
हम किसको कहेँ मुंसिफ़ और किससे सिला माँगें
सबको तो हमारी ही तक़सीर नज़र आई।
ऐ दिल कहीं चलकर अब उज़लतगजीं<ref>एकान्तप्रिय</ref> हो जाएँ
सुनते हैं खराबे में जी रहते हैं सौदाई<ref>पागल</ref>।
शायद खिले गुल कोई शायद कि फ़ज़ा बदले
वो सुब्ह का लश्कर भी लेता तो है अंगड़ाई।।
18-4-1989
शब्दार्थ
<references/>