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अपनी धूप मे भी कुछ जल / बाक़ी सिद्दीक़ी
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अपनी धूप मे भी कुछ जल
हर साए के साथ न ढल
लफ़्ज़ों के फूलों पे न जा
देख सरों पर चलते हल
दुनिया बर्फ़ का तूदा है
जितना जल सकता है जल
ग़म की नहीं आवाज़ कोई
काग़ज़ काले करता चल
बन के लकीरें उभरे हैं
माथे पर राहों के बल
मैं ने तेरा साथ दिया
मेरे मुँह पर कालक मल
आस के फूल खिले ‘बाक़ी’
दिल से गुज़रा फिर बादल