भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी पहचान हो वो शहर चाहिए / विजय किशोर मानव
Kavita Kosh से
अपनी पहचान हो वो शहर चाहिए।
उसमें बस एक नन्हा-सा घर चाहिए॥
बंद पिंजरों में रटते रहे, जो कहा
अब उड़ेंगे, हमें अपने पर चाहिए।
पीछे-पीछे किसी के नहीं जाएंगे
रास्ते अपने, अपना सफ़र चाहिए।
झुक के उठता नहीं, कोई सीधा नहीं
जो तने रह सकें, ऐसे सर चाहिए।
रोशनी के अंधरों से तौबा किया
एक नन्हा दिया हमसफ़र चाहिए।
नींव के पत्थरों, आओ बाहर, कहो
अब बसेरा हमें बुर्ज पर चाहिए।