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अपनी बेटी के लिए-3 / प्रमोद त्रिवेदी

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अवतरित होती हो तुम
हमारी बोली में,
वाणी में!

भाषा से परे चुपचाप और
अचानक ही चली आती हो
आँखों में भर आए
पानी में!

कितनी-कितनी स्थितियों-स्मृतियों में
कितने-कितने तरह से ढलती हो तुम
कहानी में।

जितनी हो दूर हमसे
पास भी हो उतनी ही
फ़ासले हैं तो कैसे हैं ये
अपनी दरमियानी में।