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अपनी वाणी में अन्यमनस्क सुर में जब / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

अपनी वाणी में अन्यमनस्क सुर में जब
बाँधा था गान अपना अकेले ही बैठकर
तब भी तो थी तुम दूर,
दर्शन तक दिया नहीं!
कैसे मैं जानूं, आज मेरा वही गान
अपरिचय के तट पर जा तुम्हारा ही कर रहा सन्धान है।
देखा आज, ज्यों ही तुम आती पास
तुम्हारी गति के ताल में बज उठती मेरी छन्द ध्वनि।
जान पड़ा, सुर के उस मेल में
उच्छ्वसित हो उठा आनन्द का निश्वास सारे विश्व में।
सालों साल पुष्पवन में पुष्प् नाना खिलते और झरते हैं
सुर के उस मिलन पर ही मरते हैं।
कवि के संगीत में फैलाकर अंजली जाग रही वाणी है
अनागत प्रसाद की प्रतीक्षा में।
चल रहा खेल दुबकाचोरी का अनिवार्य एक विश्व में
अपरिचित के साथ अपरिचित का।

‘उदयन’
प्रभात: 2 दिसम्बर