भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी ही राहों में / रोहित रूसिया
Kavita Kosh से
अपनी ही राहों में
हम भटके हुए
कितना भी चाहें
मगर उड़ते नहीं
और ज़मी पर
पाँव भी पड़ते नहीं
अधर में पर्दों से
हम लटके हुए
बस पतंगों तरह
सपने उड़े
और ज़रा-सी पेंच से
तकते खड़े
नीम की डाली पे
अब अटके हुए
अपनी ही राहों में
हम भटके हुए