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अपने अलावा ग़ौरतलब और कुछ न था / आलोक श्रीवास्तव-१

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अपने अलावा ग़ौरतलब और कुछ न था,
रिश्तों के टूटने का सबब और कुछ न था ।

बस एक तुम्हारे नाम की हो उभरी हुई लकीर,
मेरी हथेलियों को तलब और कुछ न था ।