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अपने आप को समुद्र / ब्रह्मोत्री मोहंती / दिनेश कुमार माली

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रचनाकार: ब्रह्मोत्री मोहंती(1934)

जन्मस्थान: मार्कण्ड़ेश्वर साही, पुरी

कविता संग्रह: अवतरण(1972), दृष्टिर द्युति(1981), स्तवक(1988),स्रोतस्वती (1995)


मैं रात दिन गरज रहा हूँ मेरे व्यर्थ जीवन के निष्फल आक्रोश से
तरंगो की बांह पकड़ कर, मैं प्रतिपल उन्हें छूने का प्रयास करता हूँ
कहाँ रूक पाता हूँ ? पुनः लौट आता हूँ अतृप्त मैं अपने तरंगित अशांत गर्भ में
स्थल पर मेरी स्थिति ना पाकर, मैंने आकाश को स्पर्श करने की आकांक्षा की
उसके धर्म का अनुसरण करके शांत रहूंगा ,
उसके प्रशांत-प्रशस्त सीने में थोड़ा-सा आश्रय पाउँगा
आकाश भी पकड़ में नहीं आता है ।
मै ऊपर देखता रह जाता हूँ मेरे हृदय की धधकती ज्वाला लिए
पूर्व में सूर्योदय होता है और पश्चिम में अस्त होता है
चंद्रमा भी उदय अस्त होता है, यह उसके हाथ का ऐश्वर्य है
मेरे सीने में जो कुछ भी घटा, लेकिन हाय! उसका स्थायित्व कहाँ?
उन सबका उदय- अस्त होना,लगता है मेरे गर्भ से जन्म लेकर पुनः विलीन हो जाना
जो अपना नहीं अकारण उसे अपना मानना दुःख का कारण
उनका आना-जाना उनकी अपनी इच्छा पर
बल्कि व्यर्थ के आरोपों से अकारण दुखों का विस्तार होता है ।
हरेक मुँह में उसी निर्विचार उक्ति से असंभव आत्मा
मेरे गर्भ में अमृत और विष का बनना,लेकिन मेरे लिए
इस पागलपन की अवस्था के लिए कौन उत्तरदायी ?
तीव्र गरल के नियमित प्रवाह से मेरे अशांत, शुब्ध चित्त की
अमृत -स्थिति रहते हुए भी उसकी कहाँ है प्रतिक्रिया ?
अमिय तो रहता है, वास्तव में उसका विकास कहाँ ?
उस विकास के अभाव और गरल की आत्मरक्षा के बिना
हाहाकार से मुक्ति कैसे संभव ?
सब कुछ जानते हुए भी मुझे परित्राण नहीं मिला
मेरे इस उद्दंड तांडव के लिए अज्रस-कंठ से समर्थन
और बारम्बार तालियों की गडगडाहट से
आनंद तो मिलता है , मगर कितने क्षण ?
अपने भीतर का खालीपन और थकी आँखें
खोलकर विश्राम के लिए आश्रय ढूँढता हूँ ।
करोड़ों कंठ से नास्ति-वाणी, किन्तु नृत्य बंद नहीं हुआ
तुम्हारा दुःख और थकान भला कोई और क्यों समझेगा?
वे तो बिना कष्ट किए सुख पाने के लिए नित्य उन्मुख
तुम्हारा दुःख सुनने के लिए उनके पास समय कहाँ?
रत्नाकर के पाप के लिए परिवार अकारण भागी बना
इसलिए अपनी थकान खुद समझो, अपने दुःख का खुद विश्लेषण करो
अपना एकाकीपन अपने भीतर सुलझाओ
थके हाथ फैलाने पर एक शून्य ही मिलेगा
अपने आशीर्वाद से ही अपना उद्धार संभव है।

लगातार ज्ञान प्राप्त करने और उपदेश देने के बावजूद
मेरा तांडव जारी है फिर भी यह आस्था कभी ख़त्म तो नहीं हुई
मै अशांत जिस दिन शांत हूँगा,स्थिर पानी के तले
वह किसका प्रतिबिम्ब जो सौ सूर्यों के समान दीप बनकर जलता है।