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अपने इस वाचाल कवि को / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

इस बार अपने इस वाचाल कवि को
नीरव कर दो।
उसकी हृदय-बाँसुरी छीनकर स्‍वयं
गहन सुर भर दो।

निशीथ रात्रि के निविड़ सुर में
तान वह वंशी में भर दो
जिस तान से करते अवाक तुम
ग्रह-शशि को।

बिखरा पड़ा है जो कुछ मेरा
जीवन और मरण में,
गान से मोहित हो मिल जाएँ
तुम्‍हारे चरण में।

बहुत दिनों की बातें सारी
बह जाएँगी निमिष मात्र में,
बैठ अकेला सुनूँगा वंशी
अकूल तिमिर में।