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अपने को मिटाना सीखो / सुरेश ऋतुपर्ण
Kavita Kosh से
बह जाता है सब पानी की तरह
झर जाता है सब पत्तियों की तरह
उड़ जाता है सब गंध बन
बरस जाता है सब मेघों की तरह
उगता है सूरज
ढलता है सूरज
उमगता है चाँद
टूटते हैं सितारे
खिलते हैं फूल
झरती हैं पत्तियाँ
उड़ते हैं परिंदे
टिमटिमाते हैं जुगनू
काँटों की नौंक पर
ओस झिलमिलाती है
शोख चंचल लहर
आती है जाती है
हवा डोलती है
यहाँ से वहाँ हरदम
बताओ कौन है सृष्टि में
ऐसा निष्क्रिय और चुप
जैसे कि तुम हो
गुमसुम बैठे हो
रखे हाथ पर हाथ
अहंकार में डूबते-उतराते
अपनी क्षुद्रता में लीन
टिकाए हो हथेली पर माथ
उठो और बहना सीखो
खिलो और झरना सीखो
प्रकृति के पास जाओ
उसकी तरह प्रफुल्ल मन
जीना और मरना सीखो
सौंदर्य जीने में नहीं
मरने में है।
अपने को मिटाना सीखो ।