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अपने घर में / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
बहुत सी ट्रेनें थी चलती
बहुत से वायुयान
धीरे-धीरे जाना और जानना अच्छा लगा
कि अकेला नहीं आया इस धरती पर
चलने के इतने सामान
और बैठने के भी
इससे बेहतर स्वागत क्या हो सकता है एक जीव का पृथ्वी पर
यदि पृथ्वी पर घर हो तो और क्या चाहिए किसी को एक घर से
मगर एक हाथ बढ़ने में भी लगता कितना ज़ोर
एक दिन समय बदलेगा तो घूमूँगा ऋतुओं और महलों के आर-पार
और साफ़ करवा लूँगा दीवार की नोनी जहाँ पीठ टेकता हूँ ।