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अपने ढंग से कोई जिया नहीं / शकुन्त माथुर
Kavita Kosh से
अपने ढंग से
कोई जिया नहीं
मनमाने ढंग से
दुख-सुख पिया नहीं
हवा चली
आग बढ़ी
गिरी अकस्मात बिजलियाँ
मनमाने ढंग से
झरना बहा नहीं
कहीं उगे गेहूँ धान
कहीं रहा रिक्त थान
समुद्र भी गरिमा भरा रहा न शान्त
उठती लहरों से
अन्तर का
द्वन्द्व
सुलग रहा ढका नहीं
कहीं रिस-रिस बूंदें बनी ताल
कहीं सूख गईं झीलें तप-तप कर
कहीं प्रतीक्षा सूनी आँखों में गरमाई
कहीं बढ़ती बेल फूलभरी कुम्हलाई
झर-झर पत्ती-सा
ज़िन्दगी को जी लिया
किसी ने किसी तरह
क्रम कोई भी एक बंद शुरू हुआ नहीं
अपने ढंग से कोई जिया नहीं।