भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने दिल में दीपक / हरिवंश प्रभात
Kavita Kosh से
अपने दिल में दीप जला के रक्खा है।
तेरे लिए ही प्यार छुपा के रक्खा है।
तुम व्याकुल लहरें, मैं प्यासा सागर,
ऐसा ही रिश्ता बना के रक्खा है।
कितना माहिर होगा वह चित्रकारी में,
तुमको अपने हाथों सजा के रक्खा है।
चाँदनी रात है और एक मदहोशी है,
बदन को तुमने तारों सजा के रक्खा है।
हो गये हैं निशान तेरे रुखसारों पर,
ऊंगलियाँ जो दांतों दबा के रक्खा है।
माना शख़्स हो तुम जहाँ में सारे,
सारे जहाँ को रुख पर बुला के रक्खा है।
हरसू है सर्पों का बसेरा ऐ ‘प्रभात’,
चन्दन-सा बदन क्यों महका के रक्खा है।