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अपने पहाड़ ग़ैर के गुलज़ार हो गए / बशीर बद्र
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अपने पहाड़ ग़ैर के गुलज़ार हो गये
वे भी हमारी राह की दीवार हो गये
फल पक चुका है शाख़ पर गर्मी की धूप में
हम अपने दिल की आग में तैयार हो गये
हम पहले नर्म पत्तों की इक शाख़ थे मगर
काटे गये हैं इतने कि तलवार हो गये
बाज़ार में बिकी हुई चीजों की माँग है
हम इस लिये ख़ुद अपने ख़रीदार हो गये
ताजा लहू भरा था सुनहरे गुलाब में
इन्कार करने वाले गुनहगार हो गये
वो सरकशों के पाँव की ज़ंजीर थे कभी
अब बुज़दिलों के हाथ में तलवार हो गये
(१९७१)