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अपने पानी औ' पेड़ों से सुदूर / विजय सिंह नाहटा
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अपने पानी औ' पेड़ों से सुदूर
अपने लोगों औ' प्रेम से बहिष्कृत
कहाँ अपनी चिड़ियाँ कहाँ अपनी सुबह
बिना ताल तलैया पोखर औ' पगडंडियाँ
अपने धान औ' सब्जियों की महक से महरूम
अपने घाटों औ' पणिहारिनों से कहीं अलग
कैसी होगी वह दुनिया
कैसा वह भूगोल
कैसी होगी हक़ीक़त से अलहदा
एक दुनिया गोल-सी
सपनों की कूची से खींचकर कुछ लकीरें
ज्यों सरहद की जगह काबिज हो गई
उसके भीतर कहाँ झांकता होगा
मेरा जनपद
मेरा गाँव
औ'
मेरा खेत
मेरा रक्त