अपने पास और क्या रहा है मियाँ / सुरेश चन्द्र शौक़
अपने पास और क्या रहा है मियाँ
चंद यादों का सिलसिला है मियाँ
हाकिमे—वक़्त है तू खैर से, और
वक़्त हमसे ज़रा ख़फ़ा है मियाँ
कौन रहता है इन फ़ज़ाओं में
हर घड़ी किसको देखता है मियाँ
दोस्ती, प्यार ,इश्तिराक , वफ़ा
अब ये हर लफ़्ज़ नाम का है मियाँ
सोचता हूँ कहूँ, कहूँ ,न कहूँ
तुझसे इक बात का गिला है मियाँ
सारे मतलब के रिश्ते नाते है
कब किसी का कोई हुआ है मियाँ
उसके अब होंठ कुछ नहीं कहते
उसका अब जिस्म बोलता है मियाँ
क्यूँ कही सबके रू—ब—रू हक़ बात
यह सरासर तिरी ख़ता है मियाँ
मय को यूँ देख मत हिक़ारत से
सौ दुखों की यही दुआ है मियाँ
आज क्यूँ मेहरबानियाँ इतनी
हमसे क्या काम आ पड़ा है मियाँ
‘शौक़’ ! मत ज़िक्र कर वफ़ाओं का
ज़ख़्म दिल का अभी हरा है मियाँ .
हाकिमे—वक़्त= पदाधिकारी; इश्तिराक=साझेदारी;हिक़ारत=घृणा