भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपने भरोसे से / विपिन चौधरी
Kavita Kosh से
दुःख टकसाल में कुछ और पकने गया था
सुख से कल रात ही तेज झगड़ा हुआ
प्यास को अपना ही होश नहीं रहा
हवा की कौन कहे,
उसका मिजाज ही कई दिशाओं में गुम है
अब मेरे आस-पास
कोई नहीं
अपने भरोसे को पीठ पर लाद कर चल रही हूँ
कभी तेज कभी धीरे