भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अपने भीतर / नवनीत पाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं निकला
अपने भीतर के घर से
ढूंढने अपने आप को
कैसे गढा मैं?
कैसे मढा मैं?
कितना बड़ा है मेरे भीतर का बाज़ार
एक नाम एक परिवार
एक घर
एक शहर के रिश्तों के घेरे में घूमता
झूलता मैं
मेरा एक ईश्वर
हर क्षण मेरे आगे चलता
मुझे अपने पीछे घसीटता
मैं जानता हूं
उसने नहीं बनाया मुझे
मैं ही हमेशा उसे
अपने लिए बनाता हूं
अपने को ढूंढने का नाटक करते हुए
अपने ही में लौट आता हूं
और हर बार इस हार को जीत मान
किसी तुम, वह और हम को
पटाने में लग जाता हूं ।