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अपने लिए भी जीना सीख / सुदर्शन रत्नाकर

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तुमने ऊँचे शिखरों को
छू लिया है
विस्तृत सागर भी कर लिए हैं
पार
उड़ाने भरती हो आसमान में
शत्रु से लोहा लेने में भी हो गई हो सक्षम
कमतर तो कहीं नहीं हो
पर स्त्री होने का अभिशाप तुम्हारे
नाम से हटता ही नहीं
परम्पराओं से बँधी बेटी हो,
वस्तु मात्र समझ
दान में दे दी जाती हो।
पुरुष के नाम का सिंदूर,
मंगलसूत्र और
नये नाम के साथ
तुम्हारा अपना वजूद रहता ही कहाँ है
नए रिश्तों के बोझ के तले दबी

अपने अस्तित्व को तलाशती
अपनी उपलब्धियों को सपनों में देखती
जी लेती हो जीवन।
पर कब तक जीती रहोगी ऐसे
बदल अपना स्वर
मुखर
होना सीख
संस्कारों में रह कर,
अपने लिए भी जीना सीख।